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गजल: बद्दुआ, समझा- शिव काशी

क्या लिखूं

सर्द आहें, दर्द, आँसू, सिसकियों की बद्दु

आइश्क़ को फिर यूँ लगी कुछ हिचकियों की बद्दुआ

ज़ख़्म देकर ज़िन्दगी को, रंग ख़ुद से छीने हैं

जाओ भी तुम को लगेगी तितलियों की बद्दुआ

पेड़ काटे और बेघर यूँ किए कितने ही फिर

मेरा मरना है फ़क़त उन पंछियों की बद्दुआ 

मोल कैसे जाने जिसको मिल गया सब मुफ्त ही

नाख़ुदा का डूबना…? थी कश्तियों की बद्दुआ


काम सारे करता देखो कोसते फिर भी सभी

मोबाइल को भी लगी है चिट्ठियों की बद्दुआ


Fakeera

ध्यान मेरा उसने फिर यूं भी हटाना ठीक समझा

था बहुत मसरूफ़ सो ज़ुल्फ़ें गिराना ठीक समझा


नज़रें उनकी बारहा हम पर ही आकर टिक रही थी

बस तो हमने नज़रों से नज़रें मिलाना ठीक समझा


उनकी यादें जान ही ले लेती मेरी भूख से फिर

अक्ल ने घंटी बजाई खाना खाना ठीक समझा


ज़िन्दगी ने आगे बढ़कर ख़ुद गले उसको लगाया

मुश्किलों के आगे जिसने मुस्कुराना ठीक समझा


मेरी आँखों में मुसलसल एक पत्थर टिक गया क्यूँ

आंसुओं के रस्ते ही उसको बहाना ठीक समझा

रोने वाला ही समझता है क्या कीमत इक हंसी की

मसख़रे ने दूसरों को यूँ हँसाना ठीक समझा

Fakeera

Ansh Rajora 

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