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कविता: देश की पुकार ,कौम-ए-हिन्द

देश ki pukaar

देश की पुकार

कूद जा ऐ मुनावर तू भी
सरफ़रोशी की राह में,

खुद को मुतला कर दे तू भी
आज देश परस्ती की चाह में।

जज़्बा-ऐ वतन को हमेशा साथ ले कर चल
वह आग है तेरी तू इसी आग में जल।

फूलों से भी नरम है
तेरा ये कौम-ए-हिन्द

शोलों से भी ज्यादा गरम है
तेरा ये कौम-ए-हिन्द

मज़हब धर्म तेरा ईमान यही,
गीता बाईबिल तेरी कुरान यही।

अपने वतन का तू एक राज़दार बन
इसका चमकता हुआ तू एक किरदार बन

बन जा तू इसका एक कारवां
इसका एक सच्चा तू नौजवान बन

अपने लहू से तू इसको सजा दे
अपनी पलकों पर तू इसको बिठा दे

बारूद के ढेरों से तू खेलना सिख
हमलावरों से तू लड़ना सिख।

सिख लस तू अंगारों पर चलना
काटों की नोंक पर तू पलना

बहती दरिया का तू रुख़ मोड़ दे,
टूटे हुए ख़ामोश दिलो को तू जोड़ दे

नफ़रत के समाज को आज तू बदल डाल,
काम कर जा तू कोई बेमिसाल।

वतन को तुम पर नाज़ है,
तू इसका एक जाबाज़ है।

बन तू इसकी शान
अपने देश की तू पहचान

अपने वतन का तू एक निगेहबान है
तू कर ले निछावर अपनी जान।

तेरा सलाम यही होगा,
अपने इस वतन को
अपने इस चमन को।

धन्यवाद

अमित कुमार

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